दुनिया के लोग जब कभी सबसे कठिन साधना की चर्चा करते है तो उसमें छठ पूजा का नाम सबसे पहले आता है ।छठ पर्व का नाम लेते ही समस्त भोजपुरी भाषी समाज मे जो रोम- रोम में जो खुशी प्रकट होती है उसको शब्दों में बताना मुश्किल है ।

छठ बिहारी अस्मिता की पहचान है प्रारम्भ में ये बिहार के एक आंचलिक पर्व के रूप में बिहार तक ही सीमित था लेकिन धीरे- धीरे इसका स्वरूप विस्तार हो रहा है,और झारखंड ,पूर्वांचल के साथ- साथ विश्व के कई देशों फिजी ,सूरीनाम तथा त्रिनिदाद टोबैगो में इसे बड़े ही आस्था के साथ मनाया जाता है । छठ को अगर आप एक शब्द में परिभाषित करे तो यह प्रकृति प्रेम और लोकआस्था का एक अनूठा संगम है जो 4 दिनों तक चलता है।जिसमे व्रत करने वाले लोग 36 घंटा के निर्जला उपासना को पूरे आस्था के साथ करते है।

छठ पूजा के शुरुआत के बारे में कई लोक कथाए प्रचलित है जिसमे कहा गया है कि लंका विजय के बाद जब प्रभु राम माता सीता सहित अयोध्या लौटे तो उन्होनो ने अपने राज्य की सुख समृद्धि के लिए कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान भास्कर की आराधना कर उनसे वरदान मांगा था। महाभारत कालीन सबसे बड़े योद्धा कर्ण के बारे में भी कहा जाता है कि वह प्रतिदिन कंधे तक पानी मे डूब कर भगवान सूर्य को अर्घ्य समर्पित करते थे इसी पर प्रसन्न होकर सूर्य देव ने उन्हें अमोघ कवच कुंडल प्रदान किया था । जुआ में अपना राज्य – पाट हारने के बाद जब पांडव वनों में घूमने को विवश थे तब माता कुंती और द्रोपती ने भी सूर्य की उपासना कर कोरवों पे विजय के लिए आशिर्वाद मांगा था ।

छठ का एक और अत्यंत प्रसिद्ध कथा यह है कि जब राजा प्रियवद के संतान जी मृत्यु हो गयी तो उन्होंने माता षष्ठी को मनाने के लिए कठिन साधना की माता उनकी तपस्या से प्रसन्न हुईं और उनके पुत्र को दुबारा जीवित कर दिया । आज भी ऐसी मान्यता है कि निःसंतान दम्पति अगर माता षष्ठी के व्रत को पूरी आस्था से करें तो उन्हें संतान की प्राप्ति अवश्य होती है।

छठ एक ऐसा पर्व है जिससे भगवान भास्कर के पूरे परिवार को मनाने के लिए कठोर साधना की जाती है। भगवान सूर्य और उनकी बहन षष्ठी का व्रत करने वाले लोग सुख समृद्धि और संतान प्राप्ति का वरदान मांगते है तो साथ ही भगवान भास्कर के पुत्र यमराज से अकाल मृत्यु से बचाने की प्रार्थना भी करते है।

छठ पर्व वर्ष में दो बार आता है पहला चैत्र और दूसरा कार्तिक में । छठ को मनाने वाले लोग सालो भर इसकी प्रतीक्षा करते है ।घर से बाहर रोजी- रोजगार के लिए गए लोग भी छठ के समय विशेष रूप से घर को लौट आते हैं गावँ ,मोहल्ला अपने लोगों को अपने बीच पाकर आनन्दित हो उठता है जो इस पर्व की खुशी में चार – चांद लगा देता है ।

छठ में साफ- सफाई का अत्यधिक महत्व रहता है यही कारण है कि महीने भर पहले से ही घरों और छठ घाटों की विशेष सफाई सुरु कर दी जाती है दीपावली के बाद से छठ की तैयारी और जोर पकड़ लेती है खासकर युवाओं और छोटे बच्चों में घाटों जी साफ- सफाई और सजावट को लेकर गजब का उत्साह को देखने को मिलता है ये सभी लोग घाटों पर ईट अथवा मिट्टी से बने सिरसोबिता का रंगने का काम भी करते हैं ।

गोवर्धन पूजा के बितते ही अब छठ के लिए प्रसाद जुटाने का काम शुरू कर दिया जाता है जिसमे विशेष मेहनत की आवश्यकता नही पड़ती है क्योंकि छठ में उपयोग होने वाले सारे प्रसाद अपने आस -पास आसानी से उपलब्ध रहते हैं। जिनको प्रसाद जुटाने में कठिनाई होती है वह बाजार जाकर बेहद कम खर्च में प्रसाद खरीद लेते हैं क्योंकि छठ के समय पूरा बाजार छठ में प्रयुक्त होने वाले प्रसादों से सजा रहता है ।इन दिनों बाजार में काफी चहल- पहल देखने को मिलता है । छठ के प्रसाद में मुख्य रूप से हल्दी ,अदरक, मूली, केला, नारियल, निमुआ , सुथनी, ईंख बोड़ो और इसके अतिरिक्त कुछ विशेष पकवान ठेकुआ और पूड़ी होता है जिनको व्रती लोग गुण से तैयार करती हैं इन सबको तैयार करने में साफ- सफाई का विशेष ध्यान दिया जाता है ।

चार दिनों तक चलने वाला ये महापर्व नहाय- खाय के साथ शुरू होता है जिसमे व्रती लोग बगल के किसी घाट पर स्नान करते हैं औऱ फिर मिट्टी के चूल्हे पर चावल, चना का दाल और लौकी(कद्दू) की सब्जी बनाती हैं । भोजन तैयार होने के। याद व्रती ही सर्वप्रथम उसे ग्रहण करते हैं उसके बाद ही परिवार के अन्य सदस्य उसे ग्रहण करते हैं ।

अगला दिन खरना या छोटकी छठ का दिन होता है जिसमे स्नान के बाद व्रत की शुरुआत की जाती है जिसमें व्रती बिना अन्न – जल के पूरे दिन- भर उपवास करती हैं औऱ फिर रात में गुड़ औऱ चावल से बने विशेष पकवान रसियाव और रोटी को प्रसाद स्वरूप ग्रहण करती हैं और पूरी रात मिट्टी पर ही सोती हैं ।
तीसरे दिन अर्घ्य और कोसी भरने का दिन होता है जिसमें व्रती लोग 24 घण्टा तक निर्जला उपवास करती हैं और पूरे दिन- भर छठि मइया के लिए प्रसाद के रूप में ठेकुआ पूड़ी तैयार करतीं हैं , साथ ही व्रती लोग पूजा के सभी सामान को अच्छे से धोकर एक डलिया(बर्तन में) सजातीं हैं ।

शाम के समय व्रती में साथ पूरा परिवार नजदीक के किसी घाट की ओर निकलता है परिवार के सदस्यों में डलिया सिर पर रखने की होड़ लगी रहती है छोटे बच्चे ईंख को कन्धे पर रख कर घाट तक पहुंचाते हैं । पूरे परिवार को एक साथ देख कर मन मे भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ता है। घाट पर पहुंच कर व्रती लोग हाथ मे सिपुलि( बाँस से बना एक पात्र) लेकर डूबते सूर्य को अर्घ्य देते हैं जो कि हिन्दू धर्म मे एक अनूठा दृश्य होता है । क्योंकि हमें ज्ञात है कि ही ही हिन्दू धर्म मे डूबते सूर्य की पूजा नही की जाती है , इस मामले में छठ पर्व भारत मे धार्मिक एकरूपता को प्रदर्षित करता है।

डूबते सूर्य को अर्घ्य देने के बाद व्रती घर आते ही कोसी भरने की तैयारी सुरु कर देतीं हैं । कोसी(कूड़ेसर) मिटी से बनी एक कलश जिसमे प्रसाद भर कर चारों तरफ दिया जलाया जाता है , कोसी के ठीक बगल में पूजा के लिए लाए गए गन्ने को भी सजा के रखा जाता है गन्ने में गमछा बांधने की एक विधिवत परम्परा है जिसे स्थानिय भाषा में चननी तानना कहा जाता है रात भर व्रती लोग छठि मईया को प्रसन्न करने के लिए मंगल गीत- गाती हैं फिर रात को ही व्रती लोग उसी घाट पर पहुंच जातीं हैं जहाँ वे लोग शाम के समय अर्घ्य दिये थे ।

यह दिन छठ का अंतिम दिन होता है जहां उगते सूर्य को आर्घ्य दिया जाता है । सुबह के समय काफी ठंढ रहती है तालाबों में तो पानी औऱ भी ठंढा रहता है लेकिन व्रत करने वाले स्त्री- पुरुष कन्धे तक पानी मे डूब कर भगवान भाष्कर से जल्दी दर्शन देने की प्रार्थना करते हैं । 36 घण्टा से बिना अन्न- जल ग्रहण किये जब व्रती लोग इतने ठंढे पानी मे प्रवेश करते हैं तो एक बार फिर हम सभी निःशब्द हो जाते हैं औऱ उनके सम्मान में यह सिर नतमस्तक हो जाता है ।

सूर्य की पहली किरण से जब समूचा संसार प्रकाशमय होता है तब यहां व्रती लोग भी सूर्य की लालिमा को देखकर आनन्दित हो उठती हैं और पूरी आस्था के साथ भगवान भाष्कर को आर्घ्य समर्पित करती हैं और अपने पति और पुत्र के सुख- समृद्धि तथा लंबी आयु के लिए प्रार्थना करते हैं इस प्रकार चार दिनों से चला आ रहा लोकआस्था का यह महापर्व छठ अपनी समापन की ओर बढ़ता है घर पहुंचते ही व्रती एक दूसरे को उंच- नीच के भेद किये बिना प्रसाद का वितरण करती हैं जो सामाजिक एकरूपता की एक मिशाल की तौर पे देखा जाता है ।

छठ में पारंपरिक गीतों के अपना एक अलग ही महत्व है छठ के नजदीक आते ही चारों तरफ छठ के गीत सुनाई देने लगते हैं छठ के लोकगीत जहाँ प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा के उपदेश देते हैं तो साथ ही ये लोकगीत हमें अपनी संस्कृति और अपने पूर्वजों की याद दिलाते हैं छठ घाट पर जब कभी शारदा सिन्हा ,मनोज तिवारी और कल्पना द्वारा गाये गीत सुनने को मिलते हैं तो वे भक्ति का एक अलग रूप ही मन मे उत्पन्न करते हैं ।

शारदा सिन्हा द्वारा गाये-गए गीतों के बिना तो छठ का रंग ही फीका लगता है । अनुराधा पौडवाल द्वारा गाया गीत केरवा जे फरेला घवद से तो छठ का पहचान बन गया है , छठ के इस गीत में एक अत्यंत ही मार्मिक कहानी वर्णित है जिसे आप जब सुने तब यह नया ही प्रतीत होता है पता नही यह लोकगीत कण से गाया जाता है और पता नही हम औऱ आप रहेंगे की नही लेकिन मुझे विश्वास है कि ये लोकगीत कभी समाप्त नही होगा ।

लेखक- लोक अस्मिता के सजग प्रहरी संकेत पांडेय

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