किसी स्थान विशेष की संस्कृतियों का एकीकृत समागम ही वहाँ की लोक सभ्यता होती है, जिसकी झलक वहाँ के लोक पर्व, लोक कला और लोक संस्कार की गतिविधियों में हमें दिखाई देती है। छठ पर्व और मधुबनी/मिथिला पेंटिंग बिहार का दो ऐसा ही सांस्कृतिक पक्ष है जो बहुत ही मजबूती से ना केवल बिहार बल्कि बिहार से बाहर के प्रवासी बिहारियों को आपस मे कनेक्ट करता है।
ऐसे में पटना नगर निगम ने इस बार गंगा के छठ घाटों को और भी आकर्षक बनाने के लिए मिथिला पेंटिंग का प्रयोग किया है। इस प्रयास ने लोकपर्व और लोककला को नजदीक ला इतिहास को दोहराने का कार्य किया है क्योंकि लोककला का उद्भव इसी लोक सांस्कारिक पर्व-त्योहारों से हुआ है।
मिथिला चित्रकला जो भित्ति चित्रकला थी, उसे कागज कैनवास पर उतार बाजार का रास्ता तो दिखा दिया गया पर बाजार की शक्तियों ने इसे इसके जड़ से दूर कर दिया औऱ देखते ही देखते ये ये भित्ति चित्र भित्ति पर से गायब हो गई। विकास की आड़ में विनाश की रूपरेखा खींची जा रही थी या यों कहें कि विकास का साईड इफेक्ट इतना ना जबर्दस्त था कि ये कला ना अपने मूल स्वरूप को बचा पाई और ना ही अपने मूल कलाकारों को।
परिणाम मिथिला चित्रकला का सारा तंत्र कुछ के मुठ्ठी में सिमट कर रह गया। जिस तंत्र का प्रयोग कलाकार जाए भार में, वे गाहे बगाहे अपने विलासित जीवन की आवश्यकता की पूर्ति के लिए करने लगे। रही सही कसर सरकारी नीतियों ने पूरी कर दी। सरकार का सारा ध्यान इन कलाकरों को लोन बाँटना और सांस्कृतिक मेले में उत्पादों की बिक्री के लिए स्टॉल देने पर ही रह गया। कल किसी कलाकार ने कहा था कि कुछ भी हो जाये उसकी पत्नी ने उसे लोन नही लेने की शपथ दी हुई है। इसी तरह कलाकार जब मेले में स्टॉल लगाने देश के कोने-कोने में जाते है तो कभी-कभी हालात इतने बद्दतर हो जीते हैं कि उनको अपने रहने-ठहरने औऱ खाने-पीने का भी खर्च नही निकल पाता और फिर वो स्थानीय शहर के सगे-संबंधियों या गांव से पैसा मंगा किसी तरह अपने घर को लौटता है।
ऐसे में इन सारी समस्या का समाधान एक ही है कि हम अपने दैनिक प्रयोगों में पहले की तरह ही लोक कला को स्थान दें जैसे की पहले देते थे। आज छठ पर्व में पटना नगर निगम ने जैसे मधुबनी पेंटिंग को स्थान दे अपने बिहार के लोक कला को स्थान दिया है। वैसे ही अब एक कदम हमे आगे बढ़ आजकल प्रचलन में आया हुवा पीतल का कोनियाँ, सूप, डगरा के जगह बांस का बना हुआ ये सब चीज बाजार से खरीदना और प्रयोग में लाना है ताकि इसी बहाने हमारी लोककला और हस्तशिल्प दोनों ही जिंदा रहे।