महापर्व छठ चार दिनों में सम्पन्न होता है।
पहला दिनः- व्रती इस दिन नाखनू वगैरह को अच्छी तरह काटकर, स्वच्छ जल से अच्छी तरह बालों को धोते हुए स्नान करते हैं। इसके बाद नए वस्त्र धारण कर अपने हाथों से साफ-सुथरे व नई माटी के चूल्हे पर अपना भोजन स्वयं बनाकर सूर्यदेव को नैवेद्य देकर भोजन करने के पश्चात् उसी नैवेद्य को प्रसाद रूप में अपने परिवार के सभी सदस्यों को खिलाते हैं। भोजन में चने की दाल, लौकी की सब्जी तथा चावल या पहले से ही सुखाए व साफ किए गए गेहूं या चावल के घर में पीसे आटे से निर्मित रोटी शामिल है। जिसे ‘अख़ीन’ कहते हैं। तली हुई पूरियाँ पराठे सब्जियाँ आदि वर्जित हैं। इस दिन को व्रती लोग ‘नहाए-खाए’ कहते हैं। इस दिन व्रती सिर्फ एक ही समय भोजन करते हैं।
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दूसरा दिनः- दूसरे दिन सुबह स्नानोपरान्त उपवास का प्रारम्भ हो जाता है। व्रती संध्याकाल पुन: स्नान करके अपने देवता घर में जाकर उपरोक्त ‘अख़ीन’ आटे से रोटी तथा दूधचावल व गुड़ या चीनी से खीर बनाते हैं। इन्हीं दो चीजों को पुन: सूर्यदेव को नैवैद्य देकर उसी घर में ‘एकान्त’ करते हैं अर्थात् एकान्त रहकर उसे ग्रहण करते हैं। परिवार के सभी सदस्य उस समय घर से बाहर चले जाते हैं ताकी कोई शोर न हो सके। एकान्त से खाते समय व्रती हेतु किसी तरह की आवाज सुनना पर्व के नियमों के विरुद्ध है। पुन: व्रती खाकर अपने सभी परिवार जनों एवं मित्रों-रिश्तेदारों को वही ‘खीर-रोटी’ का प्रसाद खिलाते हैं। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को ‘खरना’ कहते हैं।
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तीसरा दिनः- तीसरे दिन शाम को (सूरज डूबने से लगभग दो घंटे पूर्व) व्रती के साथ उसके परिवार के सभी सदस्य नए-नए कपड़े पहनकर नदी, तालाब या पोखरों के तट पर छठ पूजा के सामग्रियों को बाँस से निर्मित नए टोकरों में भरकर पहुँचते हैं। व्रती कुछ विधि-विधान के साथ डूबते सूरज को प्रणाम करने हेतु पानी में पश्चिम दिशा की ओर मुँहकर सूर्य को हाथ जोड़ते हुए खड़े होते हैं। कुछ समय खड़े रहने के बाद (सूरज डूबने के कुछ काल पहले तक) एक-एक करके प्रत्येक सामग्री सूर्यदेव को अर्पित कर पुन: टोकरे में रख देते हैं। सामग्रियों में, व्रतियों द्वारा स्वनिर्मित गेहूं के आटे से निर्मित ‘ठेकुआ’ सम्मिलित होते हैं। यह ठेकुआ इसलिए कहलाता है क्योंकि इसे काठ के एक विशेष प्रकार के डिजाइनदार फर्म पर आटे की लुगधी को ठोकर बनाया जाता है। उपरोक्त पकवान के अतिरिक्त कार्तिक मास में खेतों में उपजे सभी नए कन्द-मूल, फलसब्जी, मसाले व अन्नादि यथा गन्ना, ओल, हल्दी, नारियल, नींबू(बड़ा), पके केले आदि चढ़ाए जाते हैं। ये सभी वस्तुएं साबूत (बिना कटे टूटे) ही अर्पित होते हैं। इसके अतिरिक्त दीप जलाने हेतु, नए दीपक, नई बत्तियाँ व घी ले जाकर घाट पर दीपक जलाते हैं। इसमें सबसे महत्वपूर्ण अन्न जो है वह है कुसही केराव के दानें (हल्का हरा काला, मटर से थोड़ा छोटा दाना) हैं जो टोकरे में लाए तो जाते हैं पर सांध्य अर्घ्य में सूरजदेव को अर्पित नहीं किए जाते। इन्हें टोकरे में कल सुबह उगते सूर्य को अर्पण करने हेतु सुरक्षित रख दिया जाता है।
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इस पर्व में नदी-तालाबों के किनारे एक मेले का माहौल बन जाता है। व्रतियों के अतिरिक्त उनके परिवार के लोग, गाँव-मुहल्लों के लोग व अनेकों दर्शक उपस्थित रहते हैं और वो भी सूर्य को नमस्कार करते हैं। घाटों (तटों) को पहले से ही विभिन्न रंग के रिबनों, पोस्टरों, घेरों आदि से अलंकृत व सुसज्जित कर दिया जाता है। स्वयंसेवक, मुख्यत: मल्लाह, नाव लेकर और स्थल पर कुछ स्वयंसेवक वाहनों के साथ भी किसी अप्रिय घटना (Untoward Incident ) को रोकने हेतु तत्पर रहते हैं। घाटों पर छठ पर्व के लोकगीत गाने के अतिरिक्त व्रती लोग घाट पर आते-जाते रास्ते में भी गीत गाते हैं। सम्पूर्ण दृश्य मनोरम छटा लिए दृष्टिगोचर होते हैं।
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चौथा दिन:- सूर्योदय से पहले ही व्रती लोग घाट पर उगते सूर्यदेव की पूजा हेतु पहुंच जाते हैं और शाम की ही तरह उनके पुरजन-परिजन उपस्थित रहते हैं। संध्या अर्घ्य में अर्पित पकवानों को नए पकवानों से प्रतिस्थापित कर दिया जाता है परन्तु कन्द, मूल, फलादि वही रहते हैं। सभी नियम-विधान सांध्य अर्घ्य की तरह ही होते हैं। सिर्फ व्रती लोग इस समय पूरब की ओर मुंहकर पानी में खड़े होते हैं व सूर्योपासना करते हैं। पूजा-अर्चना समाप्तोपरान्त घाट का पूजन होता है। इसमें नदी की मिट्टी के पाँच गोले बनाकर सिन्दूर, प्रसाद व ‘कुसही केराव’ उन पर डालकर घाट पूजन करते हैं। पुन: गोलों को पानी में विसर्जित करके प्रसाद उठा लिए जाते हैं। वहाँ उपस्थित लोगों में प्रसाद वितरण करके व्रती घर आ जाते हैं और घर पर भी अपने परिवार आदि को प्रसाद वितरण करते हैं। व्रती लोग खरना दिन से आज तक निर्जला उपवासोपरान्त आज सुबह ही नमकयुक्त भोजन करते हैं।
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इस पर्व में एक और विलक्षण बात जो देखने को मिलती है वह ये है कि ‘मन्नतजिसे मिथिला में ‘कबूला’ कहते हैं, करने वाले पुरुषव्रती दोनों दिन (सांध्यअर्घ्य व सुबहअर्घ्य) निर्जला उपवास रखने के बावजूद भी घर से घाट तक पेट के बल चलकर सूर्य को दंड प्रणाम करते हुए घाट पर पूजन-अर्चण हेतु पहुंचते है व पानी में खड़े भी होते। बिहार के कुछ क्षेत्रों में कोशी पूजन भी करते है। अभीष्ट सिद्धि हेतु यह शुभ माना जाता है। विभिन्न स्थानों पर विधि-विधान में थोड़ा बहुत अन्तर होते हुए भी अपनी समग्रता (Totality) में यह पर्व सर्वत्र साम्य रखता है।
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महानगरों एवं अन्य शहरों में दोनों दिन सरकार की तरफ से सुरक्षा हेतु पुलिस की पुख्ता व्यवस्था होती है। सचमुच यह पर्व छूत-अछूत, जात-पात, ऊंच-नीच, महिला-पुरुष रूप कुरीतियों एवं विसंगतियों से भी अछूता रहता है। काश! सभी त्योहार इसी तरह के होते, तो शायद धर्म निरपेक्षता सिखाने-पढ़ाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। उपरोक्त चार दिनों में व्रती हेतु स्वच्छता व संयम का इतना ध्यान होता है कि व्रती निर्जला उपवास रखते हुए पवित्र स्थानों पर कुश की चटाई पर ही सोते हैं।
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