लोकआस्था का महापर्व छठ अपने आप में हर मामले में अनूठा है। यही एकमात्र पर्व है जिसमें किसी भी तरह के कर्मकांड की जरूरत नहीं होती है। सभी चीजें जनश्रुति हैं और परंपरा से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। यह पर्व प्रकृतिस्वरूप नारी शक्ति को भी दर्शाता है। हमारी सामाजिक विडंबना है कि हर पर्व या त्योहार पर अगर ईश्वर से कुछ मांगना हो तो सिर्फ पुत्र की ही कामना करते हैं लेकिन लोकोत्सव छठ इस परंपरा से उलट एक नई इबारत को लिखता है। छठ व्रती इस पर्व में पुत्र के साथ अपने लिए पुत्री और सुंदर दामाद की कामना छठ माता से करते हैं। छठ के लोक गीतों में इसका उल्लेख भी आता है। तस्दीक इस गाने की इस पंक्ति से की जा सकती है, रुनकी-झुनकी बेटी मांगे, पढ़ल पंडित दामाद…। गाने में व्रती अपने लिए बेटी और पढ़ा-लिखा दामाद माता से मांग रही है। बेटी की महत्ता को यह पर्व शिद्दत से प्रतिष्ठित करता है साथ ही सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ता यह पर्व एक नई सुबह लाने को प्रेरित करता है।
“छोटी रे मोटी डोमिन बेटी के लामी लामी केश,
सुपवा ले आइहा रे डोमिन, अरघ के बेर
छोटी रे मोटी मालिन बेटी के लामी लामी केश,
फुलवा ले आइहा रे मलिन, अरघ के बेर..”
वरिष्ठ साहित्यकार और लोकगायक शांति जैन कहती है, ”आप इस गीत को देखिए इसमें ऊंच नीच, छोटे बड़े सभी तरह के भेदभाव टूटते हैं. जातीय जकड़नें टूटती हैं. एक तरफ साक्षात देवता होते हैं और दूसरी तरफ पूजा की सारी सामग्री प्रकृति से ली हुई जिसको बनाने में समाज के सभी वर्गों की जरूरत है. इसी पर्व में आप डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य देते है, इसी में आप बेटी देने की प्रार्थना करते है. बाकी किसी पर्व में ऐसा कहां है?”
पुत्र के साथ एक पुत्री जरुरी है ये कामना इस छठ गीत में है-
“सांझ के देबई अरघिया, और किछु मांगियो जरूर,
पांचों पुत्र एक धिया (बेटी), धियवा मंगियो जरूर.”
इस महापर्व और स्त्रियों की भूमिका के बारे में हिंदू धर्म के जानकार पंडित रामदेव पाण्डे बताते हैं, “छठ के बारे में तो कहा ही जाता है कि इस व्रत को पहली बार सतयुग में राजा शर्याति की बेटी सुकन्या ने रखा था. इसलिए इसमें स्त्री स्वर की प्रधानता है. कोई ऐसा पर्व नहीं है जिसमें बेटी की कामना हो, छठ व्रत में ये कामना है. दुर्गापूजा में भी नारी की पूजा होती है लेकिन वहां बेटी की कामना नहीं है.”
इस बारे में बात करते हुए लोकगायिका चंदन तिवारी कहती हैं, “आप देखें हमारे यहां जब आशीर्वाद में कहा जाता है दूधो नहाओ पूतो फलो या फिर पुत्रवती भव. यानी बेटी की कामना कहीं नहीं है. लेकिन छठ में बेटी की भी कामना है और धनवान नहीं बल्कि पढ़े लिखे दामाद की कामना व्रती करती है.”
ये जातीय और धार्मिक जकड़नें किस तरह टूटती है इसका ज़िक्र वरिष्ठ मैथिली लेखिका उषा किरण ख़ान करती हैं. वो बताती हैं, “हमारे यहां तो मुसलमान औरतें भी छठ करती हैं. बस वो छठ के पकवान नहीं पकाती हैं, सिर्फ फल और सब्जियां ही चढ़ाती हैं. जब हम छोटे थे तो हमने उनसे पूछा कि वो पकवान क्यों नहीं पकाती है, तो उन्होंने बड़े भोलेपन से इसका जवाब दिया कि हमारा छुआ वो( भगवान) नहीं खाएंगे इसलिए. इस एक बात से आप समझे कि पर्व कितना व्यापक है.”
बिहार-झारखंड के साथ ही उत्तर प्रदेश, मुम्बई, दिल्ली व अन्य प्रांतों में छठ व्रत पूरी श्रद्धा एवं पवित्रता के साथ मनायी जाती है। घर के हर सदस्य इसमें बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं। समाज का हर छोटा-बड़ा व्यक्ति इसमें अपनी क्षमता से अधिक व्रतियों को सहायता करने में लगा रहता है। अगर हम छठ के दिन यह संकल्प लें कि महिलाओं व लड़कियों पर न अत्याचार करेंगे और न उनपर किसी तरह की हिंसा बर्दाश्त करेंगे तो छठ पर्व के इन गीतों की सार्थकता बरकरार हो जायेगी।
सहयोग- सीटू तिवारी