बिहार का महापर्व छठ 14 नवम्बर को उषा अर्घ्य देने के साथ ही समाप्त हो गया और अब सभी जगह छठ पूजा के प्रसाद वितरण का माहौल बना हुआ है. जिसके छठ हुआ हा वो अपने रिश्तेदारों आस पड़ोस में छठ के प्रसाद बाँट रहे है . और सच पूछा जाये तो छठ पूजा करने से भी ज्यादा मजा छठ के प्रसाद बांटने में आता है . कुछ लोगो को तो बॉस छठ का प्रसाद लाने का वादा लेने के बाद ही छठ की छुट्टी देते है . जो लोग बिहार और उत्तर प्रदेश के बाहर के कॉलेजों से इंजिनीरिंग की पढाई कर रहे होते है वो अगर छठ पूजा के बाद प्रसाद लेकर नहीं जाये तो शायद ही उनको कोई होस्टल में घुसने दे .
छठ पर्व के प्रसाद से जुडी तो अनेक कहानियां है लेकिन हम आज आपको एक कहानी से रूबरू कराना चाहते है जिसे प्रभात खबर के Journalist Pushya Mitra जी ने अपने फेसबुक वाल पर शेयर किया है
महज 15-20 साल पहले तक पटना में सुबह की छठ के वक़्त ऐसे दृश्य आम हुआ करते थे, 1997 की बात बताता हूँ। तब मैं अशोक राजपथ के कुनकुन सिंह लेन में रहकर छोटी बड़ी परीक्षाओं की तैयारी करता था और मित्र Akhilesh Kumar का कमरा गुलबी घाट के पास था। मैं वैसे भी उसके कमरे की तरफ चला जाता था। और कुछ नहीं तो गंगा स्नान का लोभ रहता था। उस साल छठ पर घर नहीं जा पाया तो वहीं चला गया।
सुबह के अर्घ के वक़्त देखा कि उस इलाके में रहने वाले लड़कों ने सड़कों के किनारे टेबल लगा दिया है और उस पर इसी तरह का गमछा भी बिछा दिया है। अब जो लोग घाट से लौटते एक ठेकुआ, एक पुडुकिया, कोई फल डालते चलते। इस तरह हर छात्र के पास दो तीन महीने के नास्ते का इंतजाम हो जाया करता था। बाद में अखिलेश ने बताया यह एकतरफा मामला नहीं होता है, छठ से पहले इस इलाके के छात्र ही जाकर घाट साफ कर दिया करते हैं। ऐसे में प्रसाद पाना तो बनता है। उस वक़्त यह सिस्टम मुझे बहुत अच्छा लगा था। आज सड़क पर यह गमछा बिछा देखा तो वही बात याद आ गयी।
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