तब छठ मेरी दादी किया करती थी..

तब छठ मेरी दादी किया करती थी,
जब नयी नयी फ़्रॉक पहन
पगडंडियों से गुज़र घाट पहुँचा करती थी..
छठ की छुट्टी मिलेगी कब से,
यक़ीन मानो…क्या दिन थे वो,
जब अंगुलियों पे दिन गिना करती थी..
तब छठ मेरी दादी किया करती थी..
माँ का दादी के काम में हाथ बटाना,
छत पे दिन-दिन भर बैठ गेहूँ सुखाना,
देखा है मैंने पीतल के बर्तन में
वो प्रशाद बनाना
नहाय खाय का वो कद्दू भात हो,
या  खरना का वो खीर,
पंगत में बैठ कर खाना ,
या छम छम पायल पहन,
वो प्लास्टिक का गिलास लगाना
मैं पापा को कहा करती थी ,
तब छठ मेरी दादी किया करती थी..
दिवाली के कुछ पटाखों को बचा कर,
घाट पर जलाना..
वो साँझ के गीत में माँ का भईया के साथ मेरा नाम बुलाना,
नाम सुन कर अपना .. वो मेरा मंद मंद मुस्काना,
रात को ज़मीन पर बिस्तर लगाना,
और बुआ की बेटी के साथ वो हमारा  फुसफुसाना
ठेकुआ बनते देख जी का ललचाना,
रुनकि झुनकि बेटी के साथ ..
छठी मईया से पढ़ल-पंडित दामाद का मांगना..
अब दादी नहीं.. माँ मेरी छठ किया करती है..
साँझ के गीत में ,
मेरे साथ मेरे पति और बच्चों का नाम लिया करती है,
आज भी पगडंडियों से गुज़र घाट पर जाया करती हूं.,
अब फ़्रॉक नहीं.. छठ में लाल पीली साड़ी पहना करती हूं..
आज छठ में माँ का ,
उनकी बहुयें और मैं हाथ बटाया करती हूं..
शायद थोड़ी बड़ी हो गयी हूं,
ठेकुआ बनते.. ना ललचाती ना अब बातें करती हू
वो केले,केतारी नारियल को सूपों में साजा करती हूं,
उस दौरे और सूप में अपनी परम्परा
अपनी संस्कृति देखा करती हूं..
वो सारी बातें आज भी याद किया करती हूं,
जब फ़्रॉक पहन घाट पर जाया करती थी…
तब मेरी दादी छठ किया करती थी..
देखा है मैंने मेरी दादी को छठ करते,अब मां मेरी छठ किया करती है,
एक ज़माने को ज़माने से मिलते देखा है
बेटी बहुओं को परम्परा निभाते देखा है.
देखा है मैंने मेरी दादी को छठ करते,
अब मेरी मां छठ किया करती है..
और मां की बहुयें माँ का हाथ बटाया करती हैं..
अब दादी नहीं मेरी मां छठ किया करती है…!
इस कविता को प्रेरणा प्रताप ने लिखी है, जो डीडी बिहार में एंकर के रूप में कार्यरत है। प्रेरणा प्रताप एंकरिंग के साथ-साथ खूब कविताएं भी लिखते हैं।
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