फिर धीरे-धीरे घाट खाली होने लगता है। सब अपने-अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान करने लगते है। कुछ क्षण पहले ही जहाँ अच्छी खासी भीड़ थी, वही पुनः निर्जन होने लगता है। इस तरह छठ पर्व समाप्त होता है, पूरे 36 घंटों के उपवास के पश्चात। बड़ा ही सुंदर दृश्य होता है ये सब। लगता है जैसे की स्वर्ग ही धरती पर उतर आया हो। उस समय के दृश्य को शब्दों में पूरी तरह से बयां नहीं किया जा सकता है। क्योंकि शब्द तो शब्द ही होते हैं और वर्णन के समय तो कुछ छुट जाना तो लाजिमी ही है। वास्तव में यदि देखा जाए तो छठ जीने का पर्व है। छठ जहाँ एक तरफ सूर्य की आराधना का पर्व है, वहीं एक तरफ स्त्री शक्ति की भी आराधना का भी पर्व है। ये हमें सीख देता है कि एकता से सब संभव है, नर और नारी दोनों का समान महत्व है, मानव यदि चाहे तो निर्जन को भी रमणीय स्थान बना सकता है और इसकी सबसे बड़ी सीख तो यही है कि ये जीवन की सच्चाई को पुनः एक बार दिखा देता है। लोग आते हैं, पुजा करते हैं फिर चले जाते हैं। यद्यपि वो स्थान उनका नहीं रहता है, फिर भी वे वहाँ बैठकर पुजा करते हैं, फिर उनके जाने के बाद वो स्थान पुनः निर्जन ही हो जाता है। दो दिन की मौज फिर तो उसे वीरान होना ही है। क्या इसी तरह की घटना दैनिक जीवन में नहीं होती हैं? व्यक्ति जमीन, संपत्ति कुछ भी नहीं ले जा सकता। ये सब मनुष्य की हैं भी नहीं, फिर भी मनुष्य अपने अमूल्य जीवन को बर्बाद कर देता है इन्हीं सब के पीछे। एक दूसरे का खून बहाता है, चोर-लुटेरा बन जाता है। पता नहीं मानव सभ्यता किधर जा रही है? निश्चय ही इसपर मंथन की आवश्यकता है। छठ हमें एकता, मानवता, शांति, भाईचारे आदि की सीख देता है। ये एक संभावना प्रदान करता है कि हमें हमारी कमियाँ दिखे और हम सब अपनी कमियों को दूर करने की दिशा में प्रयासरत हों।
यदि हम छठ को समझने में चूक जाएंगे तो हम एक ऐसा अवसर गँवा देंगे, जिसका उपयोग कर हम क्या से क्या हो सकते थे।
साभार – कृष्णा कुमार कर्ण, फोटो- सचिन कुमार
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